मेरा एकान्त अक्सर ताने मारता है
कि तुम क्या हो और दिखाते क्या हो…
क्यों नहीं एक बार झटक देते सिर
चुका क्यों नहीं देते उधार मान्यताओं का
दहकती हुई किसी कविता की आग निचोड़ो
नेपथ्य से निकल कर कह डालो अपने संवाद
मुक्त करो किसी पत्थर में फंसी मूरत
या तूलिका से गढ़ो कोई आकाश
जिसमे पंछी सूरज से गलबहियाँ करते हों
तुन जिस तरह उस लड़की से
विदा ले रहे थे
मैं समझ गया था
तुम चप्पू भले चलाओ
घाट से बंधन नहीं खोल सकोगे
उड़ान कितनी ऊँची कर लो
चरखी से डोर नहीं खोल सकोगे
उछालो न कोई नाद चौताला
नोच फेंको मुखौटे
वरना जब भी मिलो गे अकेले
छोड़ूँगा नहीं
जबकि पता ये भी है
गोलचक्कर में भागोगे
तो कहाँ जाओगे
जब भी खुद से लड़ोगे
मुँह की खाओगे
-पद्म सिंह 15-03-2017