धूप …

सवेरे ही शाम का मज़मून गढ़ जाती है धूप
एक सफ़हा ज़िन्दगी का रोज़ पढ़ जाती है धूप

लाँघती परती तपाती खेत, घर ,जंगल, शहर
धड़धड़ाती रेल सी आती है बढ़ जाती है धूप

मुंहलगी इतनी कि पल भर साथ रह कर देखिये
पाँव छू, उंगली पकड़ फिर सर पे चढ जाती है धूप

किस कदर चालाक है ख़ुर्शीद की बेटी भला
खिज़ां का इल्ज़ाम रुत के सर पे मढ़ जाती है धूप

देख सन्नाटा समंदर पे हुकूमत कर चले
शहर से गुजरी कि बित्ते में सिकुड़ जाती है धूप

पूस में दुल्हन सी शर्माती लजाती है मगर
जेठ में छेड़ो तो इत्ते में बिगड़ जाती है धूप
-पद्म