किट्टू एक खोज !

उसे दिल्ली लाने गए तो हमें नहीं पता था कि वो कैसी होगी। OLX पर बिल्ली का विज्ञापन देने वाला एक कॉलेज का लड़का एक महीने की कमज़ोर सी बड़े कान वाली बिल्ली को पकड़ा कर चला गया था, घर लाए तो पता चला लड़की है, नाम दिया गया “किट्टू”। “कुटकुट”(पहले वाला बिल्ला) के खो जाने के बाद घर मे छाई उदासी धीरे धीरे फिर से उल्लास में बदलने लगी, अब किट्टू के माँ बाप हम ही थे तो हमारे साथ ही सोती जागती, कई बार जब भी कहीँ फँसती तो हमें पुकारने की आदत बचपन से थी। 26 अगस्त को उमस और गर्मी से भरी बरसाती मौसम की एक सुबह थी। मोहन नगर के पास सूसू लगने से बेचैन किट्टू चलती कार से कूद गई। मोहन नगर गाज़ियाबाद वाले हाइवे के दोनों तरफ़ ग्रीन बेल्ट में बरसात ने घास फूस के जंगल खड़े कर दिए थे। फ्लाईओवर के नीचे रेलवे लाइन के किनारे आठ फिट से भी ऊँचे कास, सरपत और वन विभाग के जंगल में अचानक गुम हुई किट्टू ने होश उड़ा दिए। हाइवे के एक तरफ जंगल और उसके बाद वसुन्धरा के रिहाइशी फ्लैट। दूसरी तरफ पार्श्वनाथ सोसाइटीऔर बड़े बड़े फैक्ट्रियों के शेड। लगभग ढाई वर्ग किलोमीटर में फैले घास और कंक्रीट के जंगल मे एक फिट की किट्टू को ढूँढ निकालना भूसे के ढेर से सुई। खोजने की चुनौती थी। और हमें यह भी ज्ञात नहीं था कि वो गई किस दिशा में थी। उसी समय तेज़ धूप में ही खोज चालू हुई…

पहला दिन: कार की पिछली खिड़की से उसके कूदते ही पहला घण्टा बदहवासी में चारों तरफ हाइवे के किनारे दौड़ते बीता, किट्टू किट्टू चिल्लाते गला सूख गया, प्यास के मारे आँख के आगे अँधेरा छाने लगा, चार घण्टे की सतत खोज के बाद बेहोश हो जाने की स्थिति आ गई, लेकिन किट्टू का कोई अता पता नहीं चला। उद्विग्न और उदास मन के साथ घर लौट आया, उस रात एक घण्टे ही सो पाया। चूँकि किट्टू केवल कैट फ़ूड ही खाती थी और पानी बहुत पीती थी इस लिए जंगल मे उसके पानी खाना न मिलने की चिंता हमें सताए जा रही थी, डरी हुई बिल्लियाँ कई दिन तक खोए हुए स्थान पर छिपी रह सकती हैं, इस लिए हम कितना भी पुकारते कोई जवाब नहीं आने वाला था। उस दिन देर शाम तक भटक कर घर आना ही पड़ा।

दूसरा दिन: दूसरे दिन नए सिरे से खोज चालू हुई, लेकिन कोई अनुमान नहीं लग पा रहा था कि कार से कूद कर वो किस दिशा में गई होगी। सुबह के कई घण्टे झाड़ियों में ही खोजते बीत गए लेकिन कोई सूत्र हाथ नहीं आया तो हमने नए तरीके से खोज करने का संकल्प लिया। दुकान से पेपर पर किट्टू के खोने के पोस्टर प्रिंट करवाए और पार्श्वनाथ सोसाइटी और फैक्ट्री एरिया की ओर लगाए किन्तु परिणाम शून्य ही रहा । उधर बिटिया नानी के घर थी और बुद्धि के दिशाहीन घोड़े चक्कर खा कर गिर रहे थे। कोई सूत्र हाथ नहीं लग रहा था । यही हाल उस दिन संध्या को भी रहा, लगातार किट्टू को पुकारते घूमे लेकिन उधर से कोई जवाब न आया।

तीसरा दिन: पूरे घर मे बेचैनी और उदासी छा रही थी लेकिन बेटी के आ जाने के बाद निराशा के अंधेरे में संकल्प के नए बीज बोए गए, हमे पता था कि किट्टू ने जंगल में कुछ नहीं खाया होगा, पानी भी मिलना दूभर होगा और उसे खोजा नहीं गया तो अधिक दिन नहीं बचेगी। हमने संकल्प किया कि अपनी शक्ति भर खोज जारी रखेंगे। तीसरे दिन तक अनुमान हो गया कि बिना किसी सूत्र के हाथ लगे इतने बड़े क्षेत्र में उसे खोज पाना असम्भव है, जब कि उसके किसी भी ओर चले जाने की संभावना थी। हमने नई रणनीति तय किया और नए रंगीन स्टिकर वाले पोस्टर तैयार करवाए और हर संभावित क्षेत्र में देर रात तक पोस्टर लगते और लोगों से बातें करते रहे। लोग सुन कर चकित भी होते, आश्वासन भी देते लेकिन उसे तीसरे दिन तक किसी ने कहीं नहीं देखा। तीसरे दिन एक घर से सूचना मिली कि एक बिल्ली हमारे बाथरूम की छत पर बैठी थी। लगभग हुलिया वैसा ही बताया तो हमारा उत्साह बढ़ गया। खोज की सुई को पहली बार एक दिशा मिली। लेकिन उस दिन हम बिना किसी परिणाम वापस नोएडा आ गए।

चौथा दिन: चौथे दिन की एकदम सुबह एक फोन आया कि बिल्ली वहीं एक घर मे देखी गई है। हम पूरी तेजी से कार दौड़ाते हुए बीस मिनट में नोएडा से वसुन्धरा (लगभग 18 किलोमीटर) पहुँच चुके थे, लेकिन तब तक बिल्ली वहाँ से जा चुकी थी। उनके बताए विवरण ने हमें आशा से भर दिया और हमने उस स्थान पर खाना छोड़ने के साथ लिटर (बिल्ली के नित्य क्रिया के लिए एक विशेष मिट्टी) भी छिड़क आए। उसी दिन संध्या को फिर खोज चालू हुई, लेकिन बिल्ली का कोई अता पता नहीं। इसी बीच वसुन्धरा कॉलोनी में पैदल भटकते हुए किसी ने बताया कि सामने वाले पार्क में अभी अभी बिल्ली देखी गई है। हम भागे उस ओर, पार्क छान मारा, एक बिल्ली दिखी सफेद और बादामी रंग की, परन्तु !!….वो किट्टू नहीं थी ! अब हम फिर दिशाहीन अँधेरे में थे।

पाँचवाँ दिन: कल किसी और बिल्ली के मिल जाने से हम निराशा के गर्त में गोते लगाने लगे थे। निराशा के साथ-साथ हताशा ने भी घेरना चालू कर दिया, कोई सूत्र हाथ नहीं लग रहा था, समझ नहीं आया कि हज़ारों लोगों की बस्ती में किसी ने एक लावारिस बिल्ली को भटकते क्यों और कैसे नहीं देखा ! जबकि एक बिल्ली के खोने के इतने पोस्टर अब मुहल्ले में चर्चा का विषय बन चुके थे। पाँचवें दिन की सुबह भी इधर उधर भटकते ही बीत गई, हमने हाइवे के दूसरीं ओर फैक्ट्री के बड़े बड़े आहातों और शेडों को भी छान मारा। कई कई बार हाइवे की ढलान पर उगे बरसाती घास के झुरमुटों को छान मारा, अब हमें लगने लगा कि किट्टू कहीं किसी घर मे शरण ले चुकी होगी जिसको खोज पाना अब सम्भव नहीं लग रहा था। सुबह भटक कर हम वापस आ गए और लगभग सोच लिया कि आज शाम और खोजेंगे, नहीं तो न चाहते हुए खोज बन्द करने का निर्णय लेना ही पड़ेगा क्योंकि अब तक हमारे हाथ एक भी सार्थक सूत्र नहीं लगा था और हम पूरी तरह दिशाहीन थे। सन्ध्या को हम फिर वसुन्धरा लौटे, देर रात तक गलियों में भटकते रहे, पार्श्वनाथ सोसाइटी को हमने ये मान कर छोड़ दिया था कि उधर इतने पोस्टर लगे हैं कि कोई न कोई फोन आएगा ही। उस रात हम पूरी तरह से निराशा की गर्त में लगभग डूब ही चुके थे, ईश्वर से प्रार्थना करते हुए झुके कन्धों के साथ हम उस दिन खोज समाप्त कर लौट ही रहे थे कि ईश्वर की ओर से प्रज्ञा हुई कि एक बार जंगल के बीच मे बैठे IGL के गार्डों से मिल लेना चाहिए। रात के शायद 9 बजे जंगल में अँधेरा होने के बाद भी हम गार्ड के पास गए, तो गार्ड हमें देखते ही चौंका और कहा कि मैंने कल शाम एक सफेद बिल्ली इसी जंगल मे भटकती हुई देखा है, वो कूड़े के ढेर के पास बैठी थी, पकड़ने की कोशिश पर भाग गई । उसके बताए हुलिए से हमें रोमांच हो गया, फिर से आशा की किरण कौंध गई कि ये किट्टू ही थी और अब तक जंगल मे ही भटक रही है। किसी घर मे जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है। अब हमने खोज को नए सिरे से करने का निर्णय लिया और रात में खोज करने की नई योजना बनाई।

छठा दिन: छठे दिन सुबह 3:00 बजे मैं और बेटी जंगल और वसुन्धरा सेक्टर के सन्धि वाली लेन पर पहुँच चुके थे। उस दिन भयंकर उमस और गर्मी थी, कार चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था, हम कार की अगली सीट को नीचे कर लेटे हुए पौ फटने की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन मन मे उद्विग्नता भी थी और आशा भी, इतनी सुबह पूरे सेक्टर में सन्नाटा छाया हुआ था। अचानक मुझे फिर प्रज्ञा हुई कि उठो …. हमने उठ कर जंगल के किनारे किनारे चक्कर काटने का मन बनाया और उठ कर घूमने लगे…. जंगल के किनारे चलते चलते टॉर्च का प्रकाश भी अँधेरे के लिए अपर्याप्त ही था, किन्तु अब हमारे पास एक दिशा थी, आज हम उस जंगल को छान मारने के दृढ़ संकल्प के साथ आए थे। उस समय सुबह के लगभग साढ़े चार बज रहे थे, हम टहलते हुए गली से निकल कर हाइवे की ओर लगभग मुड़ चुके थे जहाँ से जंगल समाप्त हो जाता था और कुत्तों से भरा मीट की दुकानों वाला क्षेत्र आ जाता था, उधर इतने कुत्ते होते थे कि उधर होने की बहुत कम संभावना थी। तभी अचानक बेटी हल्का सा ठिठकी, उसे देख मैं भी रुक गया, भोर की नीरवता में हल्की और बेहद क्षीण “म्याऊँ” की ध्वनि पहली बार तो हमें भ्रम लगी, किन्तु दोबारा हम सचेत हो चुके थे और ध्वनि दोबारा कान में पड़ते ही हम सचेत हो गए और आवाज़ का अनुमान कर वापस दौड़ पड़े…. इस बीच उसने कई बार हमें आवाज़ लगाई और हम उस दिशा में वापस बढ़ते रहे। हम पहले उसके पास से ही निकले थे और वो घास के झुरमुटों से हमें देख चुकी थी और हमारी बातों से हमें पहचान भी चुकी थी, पर उसे लगा हम उसे बुला लेंगे, लेकिन न हम उसे देख पाए थे, न बुलाया तो उसने स्वयं ही हमें बुलाया कि मैं यहाँ हूँ। हम जैसे ही वापस लौटे लगभग 10 मीटर दूर घास के झुरमुटों से निकल कर किट्टू हमारे सामने खड़ी थी, मैं रोमांचित हो उठा, बिटिया चीख उठी थी “ये किट्टू ही है, किट्टू ही है” और अनायास मैं वहीं बैठ गया और मेरे मुँह से निकला “आजा मेरे बच्चे, आजा मेरे बच्चे” ….. और वो दौड़ कर आई और गोदी में समा गई…. भाग कर हम कार में पहुँचे, डिब्बे से कैट फ़ूड निकाला तो वो टूट पड़ी, पाँच दिन से उसने कुछ नहीं खाया था, जंगल मे ही छुपी रही, बरसात भी हुई, गर्मी भी थी, अँधेरा और तमाम कुत्तों का डर भी था लेकिन वो किसी तरह बच गई।

किट्टू अपने घर आ गई, किन्तु उसमे कई परिवर्तन आ गए … अब थोड़ा गम्भीर हुई है… हमसे उसका जुड़ाव और बढ़ गया है… लेकिन अनजान लोगों से डरने लगी है। पेड़ पर चढ़ते हुए उसके सारे पंजे घिस गए हैं, लेकिन किट्टू के प्रति स्नेह के अंकुर अब और प्रगाढ़ हो चुके हैं।

किट्टू की खोज ने कहीं न कहीं हमें अपने आप को भी खोजने को विवश किया। अपना स्नेह, अपना धैर्य, अपना संकल्प और अपना संघर्ष… और बहुत कुछ मिला इस खोज में।