एक हज़ल (खतरनाक सी)

मित्रों आप लोगों को हमेशा लगता था कि इस ब्लॉग पर सीरियस और दार्शनिक
रचनाएं भरी रहती हैं….तो मैंने सोचा क्यों न आज कुछ नया प्रस्तुत किया जाय आपके लिए ….
आज आपके लिए एक हज़ल ले कर हाज़िर हूँ , हलके मन और मज़बूत दिल के साथ ध्यान से पढ़िए
और मज़े लीजिए

मिलन की खुशबुओं को आज भी खोने नहीं देते
वही गंजी है सालों से मगर धोने नहीं देते

हमारे घर के मच्छर भी सनम से कितना मिलते हैं
जो दिन भर भुनभुनाते हैं तो शब१ सोने नहीं देते

हवाएं धूप पानी बीज लेकर साथ फिरते हैं
मगर वो खेत वाले ही फसल बोने नहीं देते

अब उनसे हमारा झगड़ा मिटे भी तो भला कैसे
अमन की बात करते हैं मिलन होने नहीं देते

अब अपने दर्द का इज़हार भी कैसे करूँ यारों
वो थप्पड़ मारते भी हैं मगर रोने नहीं देते

न जाने कब गरीबी मुझे साबित करनी पड़ जाए
इसी खातिर तो राशन कार्ड हम खोने नहीं देते

ये पैसा मैल है हाथों का और हम हैं सफाईमंद
तभी रब हाथ मैला हमारा होने नहीं देते

बड़ी मेहनत से करते हैं तरक्की मुल्क की अपने
हुई औलाद दर्जन, मगर ‘बस’ होने नहीं देते

खसम तो आज हो बैठे हैं कुत्तों से कहीं बद्तर
बंधा रखते हैं थोड़ी हवा भी खाने नहीं देते

मोहोब्बत पाक है अपनी रिन्यू करते हैं रोज़ाना
अकेले ही किसी को खर्च हम ढोने नहीं देते

अजब दस्तूर है इस जहां में इन हुस्न वालों का
किसी को थाल मिलते हैं हमें दोने नहीं दे
ते

हमारी उम्र में अक्सर जवानी कसमसाती है
वो जाना चाहती है और हम जाने नहीं देते

नहीं कर पाए साबित जल के परवाने वफा अपनी
‘तवज्जो’ शमा कहती है कि परवाने नहीं देते

(शब=रात)
(इज़हार=अभिव्यक्ति)

लीगल सूचना: इस पोस्ट पर के सभी चरित्र काल्पनिक हैं , अगर किसी को इससे
अपनी समानता मिले तो लेखक इसके लिए उत्तरदाई नहीं होगा ……..हा हा हा

Posted via email from हरफनमौला