कुछ दिन पहले इंदु पुरी जी के ब्लॉग पर एक कहानी पढ़ रहा था “आरती“
पढ़ा …. एक बार, दो बार, बार बार पढ़ा
कई दिन ऊहापोह में बीत गए , मन में बहुत कुछ चलता रहा……
इतना कुछ …. कि कुछ नहीं लिख पाया दो चार दिन
कहानी बहुत अच्छी है … आरती और एक लड़के की कहानी … बड़ी संवेदनशील… मार्मिक
गाँव में रहते हैं दोनों … जीनियस , संस्कारी सिद्धांतों वाला लड़का है …..
लड़की आरती खूबसूरत है , भावुक है ..गरीब की बेटी है … और स्ट्रोंग करेक्टर
प्यार था … सपने थे दोनों के … साझे सपने थे
बड़े हो कर काबिल बनेंगे… अम्मा बाबू की आज्ञा से शादी करेंगे
सजातीय थे दोनों ….. हो सकती थी शादी
पर … लड़के के पिता नहीं चाहते थे ऐसा होना
कैश करना चाहते थे लड़के को …
बाबू जी ने शर्त रख दी एक ….. या कहिये परीक्षा ली प्यार की
और कहा कि इतना ही प्यार है उसे तुम से …
तो उस से कहो कि तुम्हारे बड़के भईया से शादी करे …
ऐयाश , आवारा शराबी,कबाबी लड़का …बड़के भईया
और कई दिन लड़के के सोचविचार के बाद वही होता है … जो सदियों से होता आया है
लड़का कहता है लड़की से
” आरती ! हम एक बात कहें मानोगी?”
”मानोगी? हमसे पूछ रहे हो? कह दो क्या करना है ? हम आपके के आदेस सुनते है,मानते हैं ,इतना ही जानते है बस”
”बड़के भैया है ना हमारे सूरजदीन‘ उनसे बियाह कर लो,हाँ सब जानते हैं तुम भी
जानती हो रईस बाप की बिगड़ी औलाद हैं पर ….. उनको कोई लडकी देगा भी नही ,सब ठौर बदनाम हैं, क्या कहें तुमसे……….. ? ”
और फिर …. परीक्षा ली गयी ….. परीक्षा दी गयी
और बड़के भईया से शादी हो गयी उस की …
भाभी बना कर पूजता रहा … पूरी जिंदगी …
मेरा दिल ये पूछता है … क्या साबित करना चाहती है कहानी
इतिहास का छद्म रूप धर कर महान बनाना चाहती है कहानी …….. मगर किसको …….?
इतना निष्ठुर इम्तहान लेने वाले को … ?
क्या अपराध था उस लड़की का … कि प्यार किया उस ने .. भरोसा किया लड़के पर … और अंधी श्रद्धा और अंधा विश्वास किया उस पर … इतना .. कि अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा दिया और फिर से छली गयी…बेचीं गयी फिर से उस विश्वास के बाजार में जहां स्त्रियों का इतिहास बिकता आया है …
प्रेम ही तो करती थी वो … उसके हाथ बिकी तो नहीं थी ?.
.. क्या अधिकार था उस पर लड़के का… अपनी बपौती समझ बैठा उसे …
और तब क्या होता… अगर उसके पिता कहते मेरे से ही शादी करवा दो उस की तब समझूँ तुम्हारे प्यार को .. तब??? ,…
सच्चा प्रेमी था ??…मगर किस का ……
लड़की का ?? या अपने पिता का …….
प्रेम की उस पुजारिन का …. जो एक इशारे पर प्राण देने को तत्पर है …..?
या धन लोलुप पिता का …..जिसने एक ऐयाश शराबी का हित सोचा और बेटे का प्रेम लूट लिया…
आखिर बेटा किस का … खाली पढ़ लेने से ‘जीनियस ‘ या चंद फलसफे सीख लेने से संस्कारवान हो जाता है कोई?
आखिर पिता को किस के प्रेम की परीक्षा दे रहा है ….
पिता के प्रति अपने प्रेम की ..? या आरती के प्रेम की …
और खुद बलिदानी बन बैठे … दे दी अपनी जागीर दान में ….. वाह !!
उस के दिल में ये प्रश्न क्यों न जगा … पिता से ही पूछता … आपका मेरे लिए प्यार सच्चा है तो कर दो मेरी शादी आरती से … विरोध किस बात का … भईया से ही क्यों … क्या पिता की नीयत पर जरा भी शक न हुआ उसे ??…
नहीं… शक होता क्यों … फिर कोई राम क्यों कहता… बलिदानी क्यों कहता कोई उसे … फिर तो स्वार्थी कहते सब … अहं को क्या जवाब देते … इस लिए चढा दिया बलिवेदी पर आरती को …
उसने सोचा भी कई दिन तक…. पर अंत तक अपने को बलिदानी बनने से ज्यादा कुछ नहीं सोच पाया …और ऐसा करते हुए आरती की सहमति या असहमति का ख़याल भी न आया मन में… हृदय कांपा नहीं निर्णय लेते हुए…. पुरुष युगों से नारी के हर त्याग को अपना अधिकार और उसके हर बलिदान को उसकी दुर्बलता मानता आया है। ये तो स्त्री की हतसंज्ञता के पार्श्व में उसका सदियों से चला आ रहा शोषण ही है।
और फिर क्या हुआ??? शादी हो गयी आरती की ….भईया के साथ … भौजी बन गयी वो
और प्रेमी जी पूजने भी गए आरती को …
”अब आप हमारी बड़ी भौजी हैं, ये हमारा अधिकार है,आशीर्वाद देना आपका कर्त्तव्य . आप ‘साधारण‘ औरत नही हैं, हमारे मन में आपका दर्जा…….” ‘वो‘ नही चाहते थे कि उनको रोता- सा भी आरती महसूस करे.
”आप खुस हैं ? ” उनका ‘श‘ को ‘स‘ बोलना आज भी जारी है ,आरती को अच्छा लगता था जब वो उनका ‘श‘ को ‘स‘ बोलना सुनती थी .
” वो नपुंसक हैं ,लल्लाजी ” तटस्थ भाव से वो बोली .
‘उन्होंने ‘आरती के जीवन पर बिजली ही गिराई थी, सहज भाव से उसने झेल ली थी .अब बारी ‘इनकी‘ थी. पुरुष है ना, हिल गये समूचे .
अब देखिये आरती भौजी की मनोदशा क्या है … शादी के बाद एक प्रश्न उठा होगा मन के कोने में …
प्रश्न उठना भी चाहिए ….. अगर उनके मन में नहीं उठा, तो मेरे मन में तो उठता ही है … आरती भौजी के भाग्य में नपुंसक ही लिखा था … शादी के पहले मानसिक रूप से … और शादी के बाद शारीरिक रूप से …
पर आरती को वही करना था जो उसने किया … और कोई चारा न था उसके पास … अपने प्रेम को साबित करने का… कोई आप्शन नहीं था … प्यार की परीक्षा देनी ही थी … ये बात अलग है कि उसकी दोनों तरफ हार थी …
लेखिका लिखें न लिखें…पर आरती के मन के कोने में कहीं न कहीं टीस ज़रूर उठी थी… उसे एहसास था कि कहीं कुछ गलत हो चुका है …पर तीर निकल चुका था … इस के अतिरिक्त और क्या कहती बेचारी —
”लल्ला ! अगले जनम में हम से कोई वचन न लेना . हम भौजी नही बनेंगी तुम्हारी. माँ का मान देते हो हमें ,मुक्त कर दो इससे हमें बबुआ . अगले जनम में हम आरती बनेंगे सिर्फ तुम्हारी ‘आरती‘ और किसी की बात नही मानेंगे. ना तुम्हारे बाबूजी की,ना अपने बाबूजी की,ना तुम्हारी, चले जाओ यहाँ से ,हम इनके प्रति ‘पियार‘ कहाँ से उपजायेंगे अपने मन में ? कभी दिखोगे तो दूर से देख लिया करेंगे ‘तुम्हे‘ ,नही तो……इन्तजार करेंगे तुम्हारा अगले जनम में …….” आरती भौजी की आवाज में कोई भावुकता नही थी. दृढ शब्द थे बस .
…नहीं.. आरती की आवाज़ में भावुकता नहीं थी ….पर दिल ..??? फट कर विदीर्ण न हो गया होगा..?
फिर से न छला होगा उसने अपने आप को ?? …..शायद लेखिका ने उसे अंदर जा कर बिस्तर पर टूट कर गिरते न देखा होगा …उसका सम्पूर्ण अस्तित्व भक् भक् कर जलते न देखा होगा …. हे विधाता … ये कैसी परीक्षा…
मुझे नहीं पता द्यूत में हारे जाने पर द्रौपदी, समाज की वेदी पर बलिदान होती सीता, अथवा किसी के छल के अभिशाप को चुपचाप भोगती अहिल्या की मनोदशा क्या होती है .
किन्तु प्रश्न उठता है मन में …..यह…. कि क्या उनके मन में कोई प्रश्न नहीं उठा होगा ?
और अगर नहीं उठा प्रश्न …
तो हज़ारों लाखों साल से प्रेम के नाम पर, त्याग के नाम पर छले जाने के लिए स्त्री खुद भी उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि सामजिक व्यवस्था…
इस देश में नारी को देवत्व देकर उसे पूजा की वस्तु बना दिया गया। उसके मौन जड़ देवत्व में ही समाज अपना कल्याण समझने लगा। उसके चारों ओर संस्कारों का क्रूर पहरा बिठा दिया गया। उसकी निश्चेष्टता को भी उसके सहयोग और संतोष का सूचक माना गया।
और फिर आरती भी किस के साथ न्याय कर सकी होगी ..
प्रेम के साथ..?
अपने साथ …?
पति के साथ..?
या फिर स्त्री मात्र के साथ ..?
रिश्तों के गूढ़ मर्म को सही अर्थों में समझने वाली स्त्री… एक झलक में पुरुष के मनोभावों का एक्सरे खींच लेने वाली सहज बुद्धि कहाँ चली जाती है आरती जैसी स्त्रियों में …
- प्रेमी से भी बिछड़ गई … क्या बिछड़ कर घुट घुट कर जीना ही प्रेम है .. क्या यही प्रेम के साथ न्याय है ?..
- अपने आप से भी जुदा हुई… जो इतना प्यारा हो वो भूलता ही कब है ?… “कभी दिखोगे तो दूर से देख लिया करेंगे ‘तुम्हे’ ,नही तो………..इन्तजार करेंगे तुम्हारा अगले जनम में“
- पति से भी न जुड पाई होगी सही अर्थों में……..जुड़ती भी कैसे … वहाँ भी जो किया अपने वचन का पालन ही किया …किंचिद यंत्रवत …. कैसे किया होगा ये ईश्वर जाने
- और स्त्री जाति के लिए एक आदर्श फिर छोड़ गयी… कि प्रेम के नाम पर छले जाना ही नियति है … यही अनुकरणीय है … यही स्त्रियोचित है
- और प्रेमी जी का क्या हुआ …. उनकी शादी ? ज़रूर हुई होगी …. उनके पास वो साहस कहाँ … कि जीवन यूँ ही गुज़ार देते … आरती की याद में … पश्चाताप में …
- तभी तो उनके मुंह से अनायास उद्गार फूट पड़ते हैं …(शायद पश्चाताप के ?)
” मगर तीन साल तक हमने उनका साथ नही छोड़ा,उनके सामने उस दिन के बाद कभी नही गये .किन्तु भैया का इलाज करवाया , दो बच्चे हो गये उनके. आज सुखी
है, नौकरी भी लगवा दी भाभी की. आज बत्तीस साल हो गये शक्ल भी नही देखी उनकी , अम्मा कहती है, सूरजदीन तो बुढाए गया है पर आरती तो जैसे उम्र को तुम्हारी यादों की तरह अपने से चिपकाये बैठी है. कौन जाने ? पर…..हम जीते जी उनके सामने नही जायेंगे कभी भी, मूनजी! ” उन्होंने मुझसे कहा .
……………….जायेंगे भी कैसे …