मीनू का हर-सिंगार

दशहरे के बाद के दिन हर पखवारे शीतल होते जाते हैं. सुबह की धूप रुपहली होने लगती है… सुबह घर से निकल कर कुछ दूर यूं ही ठंडी ऑस मे टहलने की मंशा ने अनायास मुझे वहाँ खड़ा कर दिया… उसके घर मे अब ताला पड़ा हुआ है… घर वाले भी गाँव के पैतृक मकान मे जा चुके हैं, पर तुलसी का पेड़ आज भी से वैसे हरा भरा है जैसा उसे आज भी हर शाम दीप जला कर पूजा जाता हो… आज अनायास मै तुलसी के उसी पौधे के पड़ोस मे खड़े रह कर हर-सिंगार के पेड़ से झर रही अगणित तारिकाओं को निहार रहा था तो ऐसे लगा जैसे किसी ने पीछे से पुकारा हो…. “लड्डू वाले भैया”…!!! एक पल को लगा जैसे मै मुस्कुराया भी था, फिर मन भारी हो गया… मुझे पता था ये मेरे मन की अंतरध्वनि थी परन्तु मन एक बारगी थरथरा कर रह गया… बैठ कर हरसिंगार के फूल चुनने लगा… पर एक आवाज़ मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी “लड्डू वाले भैया”….!!!

जितना पढ़ाई मे मेधावी, उतना ही बात व्यवहार मे प्रखर… माँ बाप की साधारण आर्थिक स्थिति मे भी घर को चाँदी सा चमका कर और करीने से सजा कर रखने का पागलपन था उसे.. माँ बाप भाई सब के बीच सामंजस्य की कड़ी कहलाने वाली वो लड़की समझ मे अपनी उम्र से बड़ी थी…भाई बहनों मे सबसे छोटी लड़की होने के कारण परिवार मे और अपनी चपल स्निग्ध मुस्कान वाली चंचल लड़की पूरे मोहल्ले मे सबकी चहेती थी। गली के नुक्कड़ पर उसका घर होने के कारण सब उसके घर के सामने से ही निकलते। अक्सर ऐसा होता कि मै जब भी उधर से निकलता तो वो हर-सिंगार के पेड़ के नीचे खड़ी दिख जाती। मेरी नज़र पड़े न पड़े… एक आवाज़ ज़रूर मेरा पीछा करती… “लड्डू वाले भैया”॥… और मेरी नज़र पड़ते ही वो हँसते हुए दोनों हाथ जोड़ देती … नमस्ते भैया … !!!… मेरे लड्डू कहाँ हैं…? ये लगभग रोज़ का नियम था… मेरा ये नाम उसने कब रखा ये ध्यान तो नहीं पर शायद किसी दिन उसने किसी खुशी के मौके पर बोला था आप बड़े भैया हो आप लड्डू खिलाओगे… और उस लड्डू का तकादा रोज़ हुआ करता था… सुबह भी शाम भी ।

हर किसी के लिए एक सुबह ऐसी बनी होती है जिसे वह कभी छू नहीं पाता.. जीवन के रंग-मञ्च पर हर किरदार की एंट्री और एग्जिट दोनों तय है। न एक क्षण इधर और न एक पल उधर। कई बार पलट कर पीछे देखो तो लगता है पूरा जीवन यूं ही सरसराती रेलगाड़ी सा निकल गया है…बिना जाने कि हम आए ही क्यों थे यहाँ…जीवन का अंतिम स्टेशन भी आ जाता है और हम अनजाने  ही उतार दिये जाते हैं।

अचानक एक दिन उठते ही किसी ने बताया मीनू की तबीयत बहुत खराब है। आई सी यू मे है शायद पेट मे कोई गंभीर रोग है। मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ… कल रात ही तो पड़ोस की बर्थ-डे पार्टी मे मेरी बिटिया के साथ एक ही थाली मे खाना खाया था उसने …. हँस रही थी… खिलखिला रही थी.. अपने हाथों से सिला हुआ सूट भी पहना हुआ था उस दिन। फिर सुबह ही अचानक ऐसा क्या हो गया?….. अस्पताल पहुँचने पर देखा तो उसके हाथ पैर पलंग से बाँध दिये गए थे। देह स्याह पड़ रही थी … आँखें उलट रही थीं… बार बार चीत्कार के साथ पूरी देह दोहरी हो रही थी। मुँह से चीखने के अलावा कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी… मुझे देखते ही … भैया!!!!!!! “भैया मुझे बचा लो” की कातर चीत्कार.. जिसे आज भी याद करते हुए मेरा पूरा वजूद सिहर जाता है… इसी चीख के साथ वो अचेत हो चुकी उस लड़की की वो शायद इस दुनिया मे किसी के लिए दी गयी अंतिम पुकार थी। एक दो घंटे बाद उसे वेंटिलेटर पर डाल दिया गया… मुँह मे पाइप लगी होने के कारण कुछ भी बोल पाने मे असमर्थ उसकी  की कातर आखें बहुत कुछ कहना चाह रही थीं… शरीर का बार बार ऐंठना….. ऊपर उठना और धड़ाम से गिर जाना…कल्पना भी नहीं की जा सकती उस पीड़ा की… आखिर उसकी असीम पीड़ा का अंत भी आया … वेंटिलेटर पर 12-13 घण्टे का अस्पतालीय नाटक भोगते हुए… वो कब विदा हो गयी किसी को पता नहीं चला। एक बार फिर कोई प्रेम समाज के बेदर्द पूर्वाग्रह का शिकार हो गया (दो घंटे बाद ही सल्फास की डिबिया भी मिल गयी थी… उधर दूसरे अस्पताल मे एक नौजवान भी इसी तरह वेंटिलेटर पर दम तोड़ रहा था)

अगले दिन दुनिया का दूसरा नाटक भी निभाया गया… पैसे और सिफ़ारिश से पोस्टमारटम रिपोर्ट ठीक कारवाई गयी, पुलिस से सेटिंग की गयी…रात भर मे पानी की थैली मे बदल चुकी लड़की चिता की ज्वाला मे धुआँ बन ऊर्ध्वगामी हो गयी… सब कुछ ठीक ठाक हो गया.. तमाम मेहमान जुटे, सांत्वनाएं दी गईं,,,बाकी बची दवाइयाँ वापस कर पैसे लिए गए… और चार पाँच दिन मे सब खत्म… दुनिया अपने पुराने ढर्रे पर चल पड़ी…. पिता और भाई के चेहरे पर कोई खास  शिकन नहीं थी …कहीं न कहीं उनके चेहरे पर काम ठीक से निपट जाने का संतोष झलक रहा था, पुलिस केस का डर  पहले से ही सता रहा था… और फिर शायद उनकी नज़र मे ‘ऐसी लड़की’ का जाना …. जो हुआ ठीक हुआ… और फिर शादी ब्याह के पाँच-सात  लाख रूपये का खर्च भी बच गया था…!

हर-सिंगार सब कुछ वहीं खड़ा देखता रहा… उस समय हर सिंगार की उम्र भी फूलने फलने की नहीं थी… अब उसमे फूल आने लगे हैं… परंतु इन्सानों की दुनिया मे फलने फूलने के लिए इसकी कीमत अपनी आत्मा, अपने हृदय की धड़कनें झूठी प्रतिष्ठा और दक़ियानूसी परम्पराओं के हाथ गिरवी रख कर देनी होती है… और कई बार अपना जीवन दे कर भी।

मै कभी लड्डू नहीं ला पाया उसके लिए… अब लाने का कोई लाभ भी नहीं… कोई एक बड़ा कर्ज़ मेरे सिर छोड़ कर चला गया है। हर-सिंगार महक रहा है… जब तक यहाँ रहूँगा हर-सिंगार को सींचता और पोसता रहूँगा… संभव है कर्ज़ कुछ तो कम जाय।

….. पद्म सिंह 18-10-2011