आज़ाद पुलिस (संघर्ष गाथा -१)

P100710_10.16_[03]पिछले दस वर्षों से आते जाते देखा है उसे …पुलिस वाले उसे देखते ही अपनी ड्यूटी पर सचेत हो जाते हैं …. खाली सर वाले पुलिस वाले तुरंत सिर पर टोपी पहन लेते हैं … और रिश्वत लेते हाथ  इसे देखते ही यकायक रुक जाते हैं … कृषकाय… साधारण सा दिखने वाला   इंसान…. खाकी वर्दी, सर पर पुलिस की टोपी… और हाथ मे पुलिस जैसा ही डंडा लिए हुए वो अपना पुराना सा रिक्शा खींचते हुए… शहर मे कहीं भी कभी भी दिखाई दे जाता है…. यूँ तो कोई विशेष बात नहीं लगती  है इसमें  .. लेकिन एक बात और होती है जो बरबस लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करती है…. उसके  रिक्शे के आगे पीछे हर जगह “आज़ाद पुलिस” लिखा हुआ है … रिक्शे के पीछे  भी “आजाद पुलिस” और “हम बदलेंगे जग बदलेगा” और “भ्रष्टाचार के  खिलाफ” “अंधा क़ानून”  जैसे स्लोगन लिखे हुए होते हैं …वो चलाता तो रिक्शा है लेकिन अपने आपको आज़ाद पुलिस कहता है.. पल्स पोलियो, दहेज विरोध तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ बैनर लगा कर लोगों को जागृत करने वाले इस व्यक्ति के बारे मे कई बार उत्सुकता हुई कि यह कौन है … यह आजाद पुलिस क्या है ? कौन है वह व्यक्ति जो अपने  आप को आजाद पुलिस कहता है ?आखिर क्यों धूमता है वो अपनी रिक्शे पर आजाद पुलिस का बोर्ड लगा P100710_10.16कर ? आज सुबह अचानक जब उसका रिक्शा सामने से गुज़रा तो मुझसे रहा नही गया और मैंने उसकी वास्तविकता जानने का मन बना लिया …

रिक्शा किनारे लगवा कर मैंने जब अपनी उत्सुकता उसके सामने रखी तो उसने अपने बारे मे जो कुछ बताया वो सुन और देख कर मै हतप्रभ रह गया …. जब मैंने उससे उसके बारे मे पूछा तो उसने कहा भाई साहब मै   तो लेखक हूँ… मैंने अपना जीवन न्याय के लिए संघर्ष और गरीबी मे काट दिया है……लेकिन आज तक मुझे प्रशासन या न्याय व्यवस्था से न्याय नहीं मिल सका है … पिछले पन्द्रह सालों से मै प्रशासन के लचर रवैये और दमनात्मक नीतियों का जीता जागता उदाहरण हूँP100710_10.16_[02]… सरकार की कोई भी नीति गरीबों और लाचारों तक न् पहुँच पाने का कारण है प्रशासन का लचर और गैर जिम्मेदाराना रवैया … उत्सुकतावश उसके बारे मे मैंने कुछ और जानने की नीयत से उसके जीवन के बारे मे पुछा … तो उसने अपनी कहानी प्रमाणों के साथ(जो उसके रिक्शे मे ही गद्दी के नीचे रखे थे) एक एक कर मेरे हाथ पर रख दिए . इसने अपने बारे मे जो कुछ बताया उसे आगे लिखता हूँ .

बात चीत मे शिष्ट और प्रवाहमयी व्यावहारिक बातें करने वाले इस व्यक्ति ने अपना नाम ब्रह्मपाल प्रजापति बताया… सात भाइयों और एक बहन के बीच ब्रह्मपाल का गरीबी ने बचपन से ही साथ नहीं छोड़ा… बचपन मे पढ़ने की इच्छा रखने वाले ब्रह्मपाल गरीबी के कारण केवल दूसरी कक्षा तक ही पढ़ सके बारह वर्ष की कच्ची उम्र मे परिवार के भरण पोषण का जिम्मा ब्रह्मपाल पर होने के कारण चाय की दूकान पर नौकरी करनी पड़ी … खेलने कूदने और पढ़ने की उम्र मे इनके सामने परिवार की दो जून की रोटी का ही लक्ष्य था … लेकिन स्कूल छोड़ने की टीस हमेशा चुभती रही … स्वाभिमान ब्रह्मपाल के स्वभाव मे कूट कूट कर भरा था.. यही कारण था कि वो चाय की दूकान पर नौकरी अधिक दिन न् कर सका और मालिक की गाली गलौच से परेशान हो कर दिल्ली आ गया जहाँ उसने अथक मेहनत कर के कुछ रूपये जोड़ लिए … अपनी दमित इच्छाओं के वशीभूत ब्रह्मपाल ने जीविकोपार्जन के लिए बम्बई का रुख किया और मेहनत करते हुए परिवार को पैसे भेजता रहा …

कुछ सालों बाद परिवार वालों की जिद पर जब ब्रह्मपाल अपने गाँव वापस आया तो फिर बम्बई नहीं गया और परचून की दूकान खोल ली … इसी बीच अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के वशीभूत ब्रह्मपाल ने  कक्षा दो तक की शिक्षा के बावजूद भी अनेक कविताओं और लघु उपन्यासों की रचना की . उसकी इच्छा थी कि उसके उपन्यास पर अगर कोई फिल्म बना दे तो उसकी गरीबी दूर हो जाय.

इसी बीच ब्रह्मपाल का परिचय हापुड़ निवासी एक व्यक्ति शम्भूनाथ शर्मा से हुआ … शम्भूनाथ शर्मा ने जब उसका उपन्यास पढ़ा और लालच दिया कि यदि तुम आठ हजार रुपये का इन्जाम करो तो तुम्हारी उपन्यास पर फिल्म बनवा दूँगा … मेरे जानने वाले बहुत से लोग फिल्म इंडस्ट्री मे हैं …फिर तुम्हें लोग “गम के आँसू” के लेखक के रूप मे जानेंगे …. घर की माली हालत खराब होने के बावजूद ब्रह्मपाल ने आठ हजार रुपयों का इंतजाम किया और कहानी सहित शम्भूनाथ को दे दिया …शम्भूनाथ ने वो कहानी अपनी कह कर किसी प्रोड्यूसर को बेच दी …और ब्रह्मपाल को दुत्कार कर भगा दिया …  इस कहानी पर फिल्म भी बनी…  ब्रह्मपाल का अब तक का जीवन दुःख और संघर्षों से घिरा रहा…. लेकिन यहाँ से उसके संघर्षों का दूसरा अध्याय प्रारंभ होने वाला था…

ब्रह्मपाल जब अपने साथ हुए इस धोखाधड़ी की शिकायत करने पहुंचा तो हापुड़ पुलिस ने उसे दुत्कार कर कर भगा दिया …बहुत प्रयासों के बाद भी न् तो उसकी रिपोर्ट लिखी गयी और न ही कोई कार्यवाही की गयी … इस से क्षुब्ध हो कर ब्रह्मपाल ने अनेक पत्र आला अधिकारियों को लिखे … जहाँ से कोई सहयोग न् मिलने पर अपनी आपबीती नौ मीटर कपड़े पर लिख कर तत्कालीन प्रधान मंत्री स्व० राजीवगांधी को भेजा …  कुछ समय बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से एक पत्र आया जिसमे उत्तरप्रदेश सरकार से मिलने के निर्देश दिए गए थे … लखनऊ मे सचिवालय मे गेट पर प्रवेशपत्र बनवाने के लिए मची होड़ में धक्का मुक्की होने से काँच की खिड़की टूट गयी और पुलिस ने इसे दोषी मानते हुए बिना किसी जाँच के जेल भेज दिया ….आठ महीने पन्द्रह दिन की जेल काटने के बाद एक समाचार पत्र मे छपी उसकी खबर से प्रशासन सचेत हुआ और उसे  मुक्त कर दिया गया …जेल से छूटने के बाद ब्रह्मपाल ने जेल के अंदर होने वाले भ्रष्टाचार और पुलिसिया अत्याचार की पोल तमाम समाचार पत्रों मे खोलती शुरू कर दी … उसने बताया कि जेल तो केवल गरीबों के लिए है … अमीरों के लिए तो जेल सुरक्षित ऐशगाह से कम नहीं पैसे के बदले जेल मे चरस, अफ़ीम, गाँजा सब कुछ सहज ही उपलब्ध है…वो भी पुलिस ही मुहैया करवाती है … बिना पैसे के जेल का खाना जानवरों से भी बदतर होता है …  अपने साथ हुए इस अत्याचार से क्षुब्ध हो कर ब्रह्मपाल ने निकम्मी पुलिस और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने की ठान ली …

…..अगली पोस्ट मे बताएँगे कैसे ब्रह्मपाल का व्यक्तिगत संघर्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनता की अनोखी लड़ाई मे बदल गया …

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